मध्य प्रदेश

गायखुरी पत्थर की रंगोली: एक ऐसा इतिहास जो समय को थामकर रह गया!

बालाघाट 
जिला मुख्यालय स्थित गायखुरी की रंगोली एक समय पहले बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। मगर यह रंगोली समय के साथ कहां लुप्त हो गई इसका पता ही नहीं चला। शहर के वार्ड नंबर 33 गायखुरी घाट के पत्थरों से बनाई जाने वाली रंगोली अब इतिहास की बात बनकर रह गई है। स्थानीय लोग बताते हैं कि करीब 30 से 35 वर्ष पहले तक गायखुरी घाट में मिलने वाले पत्थरों की पिसाई कर रंगोली बनाई जाती थी। अब बदलते समय के साथ बंद कर दी गई। रंगोली बनाने से स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलता था और दीपावली का खर्चा भी निकल आता था। लेकिन समय के साथ अब यह काम बंद हो चुका है। बाहर से आने वाली रेडिमेट रंगोली ने मार्केट में अपनी जगह बना ली है। गायखुरी घाट के पत्थर से बनाई जाने वाली रंगोली अब इतिहास बन कर रह गई है।

ऐसे बनती थी प्राकृतिक रंगोली
जानकारी के अनुसार पहले जागपुर घाट से लेकर गायखुरी घाट तक केवल रंगोली बनाने का कार्य ही होता था। रंगोली के पत्थर को सब्बल से तोडकऱ उसके छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते थे, फिर रोड में बिछा दिया जाता था। पत्थर चुरा होने पर उसे छानकर प्राकृतिक रंग मिलाए जाते थे। या फिर पत्थर को घर ले जाकर उसे कूटते थे, छानने के बाद उसमें प्राकृतिक रंग मिलाकर रंगोली तैयार की जाती थी। आज भी यहां का पत्थर काफी चमकीला है। यदि रंगोली बनाने का कार्य फिर शुरू किया जाए तो पूरे जिले में यही की रंगोली को लोग पसंद करेंगे। बाजार में आसानी से रंगोली उपलब्ध होने के चलते इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।

दूसरे राज्यों में भी थी मांग
गायखुरी घाट की रंगोली की मांग बालाघाट जिले ही नहीं बल्कि सिवनी, छग और महाराष्ट्र राज्य के अन्य जिलों में भी भारी मात्रा में रहती थी। गायखुरी घाट से चमकीले पत्थर को खोदकर निकाला जाता था। पिसाई कर उसे मार्केट में बेचने के लिए उपलब्ध कराया जाता था। एक जमाने में गायखुरी की रंगोली इतनी फेमस हो गई थी कि इसकी डिमांड बढऩे के साथ ही यहां से पत्थर निकाल कर उसे तिरोड़ी, केवलारी और तिरोड़ा की मील में पाउडर बनाने के लिए भेजा जाता था। पाउडर बनने के बाद उसमें तरह-तरह के प्राकृतिक रंग मिलाए जाते थे और रंगोली तैयार कर उसकी सप्लाई बाहर राज्यों तक में में होती थी। लेकिन अब इस घाट में रंगोली बनाने की प्रथा समाप्त हो चुकी है।

केवलारी की खदानों ने ली जगह
बताया गया कि गायखुरी घाट के पत्थरों की जगह केवलारी क्षेत्र की खदानों से निकलने वाले चमकीले पत्थरों में ले ली है। बताया जा रहा है कि केवलारी क्षेत्र की खदानों से निकलने वाले पत्थर गायखुरी से निकलने वाले पत्थरों से ज्यादा चमकीले हैं। जिससे गायखुरी के पत्थरों की मांग लगातार घटने लगी। वर्तमान में यह पूर्ण तरह से बंद हो गई है।
 
रेडीमेड रंगोली ने बनाई पकड़
स्थानीय बुजुर्गो के अनुसार धीरे-धीरे दूसरे राज्यों की केमिकल युक्त रेडीमेड रंगोली ने अपनी पकड़ बना ली। बाजार में रंगोली आसानी से उपलब्ध होने से लोगों ने भी यह कार्य छोड़ दिया और गायखुरी के पत्थर से रंगोली बनाने की प्रथा धीरे-धीरे लुप्त होते गई। मांग कम होने से लोगों ने यह व्यापार बंद कर दिया और आज गायखुरी घाट की रंगोली वाली दास्तान लोगों की जुबान में महज एक किस्सा बनकर रह गई है।

स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
कॉस्मेटिक, केमिकल के इस दौर में आज भी लोग उस प्राकृतिक रंगोली को याद करते हैं। जो रंगोली बाजार में आसानी से उपलब्ध हो रही है, उस रंगोली में घातक केमिकल, रंग, रेत और डीजल का उपयोग धड़ल्लेसे किया जा रहा है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। चिकित्सक भी केमिकल वाली रंगोली से बचने की सलाह देते हैं। लेकिन बाजार में आसानी से मिलने के कारण लोग इस रंगोली का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं।

अब स्वयं खरीद रहे रंगोली
गायखुरी घाट का पत्थर इतना अधिक चमकीला था कि उसमें चमक पैदा करने रेत या केमिकल मिलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। प्राकृतिक रंगों का उपयोग कर रंगोली बनाई जाती थी। इस व्यवसाय को लगभग पूरा गांव करता था। लेकिन अब जो लोग उस समय रंगोली बनाते थे। वे आज खुद रंगोली खरीद कर अपना आंगन सजा रहे हैं।

News Desk

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